निवेदन

 

    निवेदन है निष्पत्ति, जब 'प्रकाश' तुम्हारी सत्ता के सभी भागों को आलोकित कर देता है केन्द्रीय इच्छा जब अनुभवों, आवेगों विचारों, संवेदनाओं क्रियाओं पर कार्य करती हुई उन्हें हमेशा भगवान् की ओर मोड़ती है और जब तुम अन्धकार से प्रकाश की ओर या मिथ्यात्व से सत्य की ओर या दुःख से सुख की ओर नहीं बल्कि प्रकाश से अधिक प्रकाश, सत्य से अधिक ऊंचे सत्य और सुख से बढ़ते हुए सुख की ओर गति करते हो ।

 

*

 

    भगवान् के प्रति सच्चे और निष्कपट निवेदन में ही हम अपने अति-मानवीय दुःखों से छुटकारा पा सकते हैं ।

 

*

   

    ध्यान के द्वारा प्राप्त किया गया अचंचल मन सचमुच बहुत कम समय के लिए रहता है, क्योंकि जैसे ही तुम ध्यान से बाहर निकलते हो उसके साथ-ही-साथ तुम मन की अचंचलता से भी बाहर निकल आते हो । प्राण, शरीर और मन में सच्ची, स्थायी अचंचलता 'भगवान्' के प्रति पूर्ण निवेदन से आती है; क्योंकि जब तुम किसी भी चीज को, अपने-आपको भी अपना न कह सको, जब सब कुछ, तुम्हारे शरीर के साथ-साथ तुम्हारी संवेदनाएं, अनुभव और विचार भगवान् के हो जाते हैं, तो भगवान् सभी चीजों का पूरा-पूरा उत्तरदायित्व ले लेते हैं और तुम्हें किसी बात की चिन्ता नहीं करनी पड़ती ।

 

*

 

    ध्यान की अपेक्षा, साधना में, तुम जो कुछ हो, और जो कुछ करते हो उसका सच्चा निवेदन अधिक प्रभावशाली होता है ।

 

*

 

१०९


    घोर तपस्या की अपेक्षा सच्चा प्रेम और निवेदन भगवान् की ओर कहीं ज्यादा तेजी से ले जाते हैं ।

२६ अप्रैल, १९३७

 

आत्मदान

 

 

    आत्मदान सच्ची प्रार्थना है ।

 

*

 

    आत्मदान : इसके द्वारा सारी सत्ता क्रमश: केन्द्रीय चैत्य सत्ता के चारों ओर एक हो जाती है ।

 

*

 

    अपने-आपको देना-यह अपने-आपको पाने का सबसे अच्छा तरीका है ।

 

*

 

    अपने-आपको, तुम जो हो और जो करते हो, भगवान् को दे दो, और तुम शान्ति पा लोगे ।

 

*

 

    अपने-आपको पूरी तरह भगवान् को दे दो और तुम देखोगे कि तुम्हारे सभी कष्टों का अन्त हो गया है ।

 

*

 

    सच्चा और निष्कपट आत्मदान ही मनुष्य को सभी कठिनाइयों और खतरों से बचाता है ।

 

*

 

    कभी न कहो, ''मेरे पास भगवान् को देने के लिए कुछ भी नहीं है । ''

११०


 

देने के लिए हमेशा कुछ-न-कुछ होता है, क्योंकि तुम हमेशा अपने-आपको अधिक अच्छे और अधिक पूर्ण रूप में दे सकते हो ।

 

*

 

    भगवान् के लिए तुम्हारा मूल्य उससे ज्यादा नहीं है जितना तुमने 'उनको' दिया है ।

 

*

 

    तुम्हारे पास जो चीज अधिक है उसे 'भगवान्' को देना समर्पण नहीं है । तुम्हें जिस चीज की आवश्यकता हो उसमें से कुछ-न-कुछ देना चाहिये ।

 

*

 

    अगर तुम याद रखो कि 'भगवान्' को तुमने क्या दिया है, तो 'उन्हें' उसे याद रखने की कोई आवश्यकता न होगी; और अगर कभी तुम उस उपहार के बारे में किसी से बात करो या उसकी चर्चा करो तो वह 'भगवान्' को नहीं, बल्कि दम्भ के असुर को किया गया अर्पण होगा ।

 

*

 

    पूर्ण आत्मदान : पूरी तरह से खुला हुआ, स्पष्ट और शुद्ध ।

 

*

 

    चैत्य सिद्धि को आध्यात्मिक सिद्धि के साथ उलझा न दो क्योंकि चैत्य सिद्धि तुम्हें देश और काल के अन्दर अभिव्यक्त विश्व के अन्दर ही रखेगी ।

 

    जब कि आध्यात्मिक सिद्धि का प्रभाव तुम्हें सारी सृष्टि देश और काल के परे ले जायेगा ।

 

    अपने-आपको अपने-आप से बड़े के हाथों में पूरी तरह दे देने से बढ़कर पूर्ण और कोई आनन्द नहीं है । 'भगवान्' 'परम स्रोत', 'भागवत उपस्थिति', 'निरपेक्ष सत्य' --इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम 'उसे' क्या नाम देते हैं या उसके किस रूप के द्वारा उस तक पहुंचते हैं--सम्पूर्ण

 

१११


निवेदन में अपने-आपको पूरी तरह भूल जाना 'सिद्धि' की ओर जाने का निश्चिततम मार्ग है ।

१३ जनवरी, १९५२

 

*

 

    हर चीज कितनी सुन्दर कितनी महान्, कितनी सरल और कितनी शान्त बन जाती है जब हमारे विचार 'भगवान्' की ओर मुड़ जाते हैं और हम अपने-आपको 'भगवान्' को समर्पित कर देते हैं ।

११ मई, १९५४

 

*

 

    हमें अपना जीवन और अपनी मृत्यु भी, अपना सुख, अपना दुःख भी देना जानना चाहिये ।

२८ दिसम्बर, १९५४

 

*

 

    भगवान् के प्रति पूर्ण आत्मदान के लिए तीन विशेष विधियां :

    १. सारे गर्व को त्याग कर पूण नम्रता के साथ अपने-आपको 'उनके' चरणों में साष्टांग प्रणत करना ।

    २. अपनी सत्ता को 'उनके' सामने खोलना, नख से शिख तक अपने सारे शरीर को खोल देना जिस तरह किताब खोली जाती है, अपने केन्द्रों को अनावृत कर देना जिससे कि उनकी सभी क्रियाएं पूर्ण सच्ची निष्कपटता में प्रकट हो जायें जो किसी चीज को छिपा नहीं रहने देती ।

     ३. 'उनकी' भुजाओं में आश्रय लेना, प्रेममय और सम्पूर्ण विश्वास के साथ 'उनमें' विलीन हो जाना ।

 

     इन क्रियाओं के साथ-साथ ये तीन सूत्र या व्यक्ति के अनुसार इनमें से कोई एक अपनाया जा सकता है :

     १. 'तेरी इच्छा' पूर्ण हो, मेरी नहीं ।

     २. जैसी 'तेरी इच्छा', जैसी 'तेरी इच्छा' ।

     ३. मैं हमेशा के लिए 'तेरा' हूं ।

 

११२


    साधारणत: जब ये क्रियाएं सच्चे तरीके से की जाती हैं तो इनके साथ-साथ पूर्ण ऐक्य, अहम् का पूर्ण विलयन हो जाता है जिससे महान् आनन्द का जन्म होता है ।

 

*

 

    'परम ऐक्य' की ओर तीन 'चरण' -

    तुम्हारे पास जो हो सब दे दो, यह आरम्भ है ।

    तुम जो करो सब दे दो, यह मार्ग है ।

    तुम जो हो सब दे दो, यह प्राप्ति है ।

 

*

    मैंने पढ़ा और सुना हे कि व्यक्ति को ''अपने-आपको'' भगवान् को

    दे देना चाहिये । मैं यह नहीं समझ पाता कि हमें ''अपने-आपको''

    केसे देना चाहिये ?

 

अपने विचार से, अपने विचारों को दो ।

    अपने हृदय से अपने भावों को दो ।

    अपने शरीर से अपना काम दो ।

२१ मार्च १९६५

 

*

 

    सभी शब्दों के परे, सभी विचारों के परे अभीप्सा करती हुई श्रद्धा की आलोकित नीरवता में अपने-आपको सर्वांगीण रूप से, बिना कुछ बचाये, पूरी तरह सभी अस्तित्वों के 'परम प्रभु' को दे दो और 'वे' जो तुम्हें बनाना चाहते हैं उसके अनुसार तुम्हारा उपयोग करेंगे ।

 

    प्रेम और आशीर्वाद सहित ।

५ मार्च, १९६६

*

 

११३